ज़िंदगी आठ का पहाड़ा है : जानिए, किस तरह आठ-आठ वर्ष के पड़ाव में बंटी हैं हमारे जीवन की आध्यात्मिक यात्रा


जीवन कोई आकस्मिक घटना  या अनियोजित क्रम नहीं है। वास्‍तव में यह एक पूर्वनियोजित यात्रा है, जो कालचक्र की धुरी पर घूमती है। यह सृष्टि के सनातन नियमों और कालचक्र के अदृश्य सूत्र में बंधी हुई वह कथा है, जिसकी हर कड़ी नियत है। भारतीय दर्शन कहता है – "सर्वं कालक्रमेण" अर्थात सब कुछ समय के अनुसार घटित होता है। सनातन दर्शन कहता है कि जीवन चार आश्रमों में विभाजित है — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। यदि हम आधुनिक जीवन को देखें, तो वह भी आठ-आठ वर्षों के पड़ाव में इन आश्रमों का रूप लेता है। जैसे आठ का पहाड़ा, वैसे ही जीवन का क्रम — हर आठ वर्ष एक नई दिशा, एक नया धर्म, एक नई जिम्मेदारी लेकर आता है। इस बात के मर्म को समझने के लिए यदि हम ज़िंदगी को "आठ का पहाड़ा" मान लें, तो बड़ी सरलता से जीवन के महत्‍वपूर्ण पड़ावों को समझा जा सकता है। इस लेख में हम आठ के पहाड़े के जरिये जीवन के इसी दार्शनिक भाव को समझने का प्रयास करेंगे।

8 वर्ष: बाल्यकाल की निष्कलंक मासूमियत

जीवन के पहले आठ वर्ष ईश्वर द्वारा दिया गया वह अमूल्य उपहार है, जिसमें आत्मा शुद्ध, निर्मल और अहंकारविहीन होती है। जीवन के  प्रथम आठ वर्ष का समय वह अवस्था है जब आत्मा संसार में नवीन होती है, शरीर और मन अभी विकसित हो रहे हैं। इस काल यानी बाल्‍य अवस्था के बारे में शास्‍त्रों में कहा गया है "बालकं रूपं हरिः स्वयं"। यह वह समय है जब आत्मा अभी तक कर्मबन्धनों से पूर्णतः ग्रसित नहीं हुई होती। इसलिए शुद्धता, सरलता और आनंद अपने चरम पर होते हैं। बालक की मुस्कान में स्वयं नारायण के दर्शन होते हैं — वह न क्रोध जानता है, न छल, न कपट, न द्वेष। शास्त्रों में बाल्यकाल को "लीलामय अवस्था" कहा गया है। यह काल किसी तपस्या से कम नहीं, क्योंकि इसमें आत्मा शरीर के साथ समायोजन करती है, और धीरे-धीरे संसार को पहचानना प्रारंभ करती है। बाल्यकाल वह नींव है जिस पर पूरी जीवन इमारत टिकी होती है। माता-पिता और गुरुजन इस अवस्था में जो संस्कार देते हैं, वही आत्मा की स्मृति बनकर जीवन भर साथ चलते हैं। यही कारण है कि संस्कारों की शिक्षा को जीवन के प्रारंभिक आठ वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण बताया गया है।

16 वर्ष: यौवन की दहलीज़

सोलह की अवस्था को कुमार अवस्था कहा गया है। जीवन के इस दौर में ही व्‍यक्ति में 'मैं' और 'मेरा' की भावना मुखर होती है। यह अवस्था अति संवेदनशील है, क्‍योंकि सोलह वर्ष की अवस्था वह संधिकाल है जहाँ बचपन की सहजता पीछे छूट जाती है और यौवन की ज्वालाएँ मन-मस्तिष्क को व्याकुल करने लगती हैं। इसीलिए जीवन के इस पड़ाव पर व्‍यक्ति को संयम और साधना की आवश्यकता होती है। यहां से आत्मा को कर्मयोग की ओर या भोगयोग की ओर झुकने की चौराहे पर खड़ा किया जाता है। यह वह समय है जब भीतर आत्मबल जागृत होता है, पर दिशा नहीं होती। यह वह काल है जब आत्मा 'स्व' को पहचानने लगती है, पर भ्रम में भी होती है। वेदों में इसे ‘विद्यार्थी अवस्था’ माना गया है — जहाँ ज्ञान अर्जन, चरित्र निर्माण और आत्मसंयम की शिक्षा दी जानी चाहिए। यदि इस उम्र में संयम और विवेक का मार्ग नहीं दिखाया गया, तो मनुष्य जीवन भर भटक सकता है। यह वह पड़ाव है जहाँ जीवन की धारा तय होती है — यदि गुरु और शास्त्र का साथ मिले, तो यह यौवन तप का रूप ले लेता है, अन्यथा यह वासना और भ्रम का केंद्र बन सकता है।

24 वर्ष: विवाह और जीवन-साथी का साथ

वेदों में 24 को गृहस्थाश्रम की आयु बताया गया है। यह वह वेला है जहाँ आत्मा अकेले नहीं चलती, वह एक और आत्मा से बंधती है, जो जीवनसाथी के रूप में जीवन की सहभागिनी बनती है। चौबीस वर्ष की अवस्था में व्‍यक्ति विवाह रूपी जीवन अपने प्रथम सामाजिक उत्तरदायित्व से जुड़ता है। भारतीय परंपरा में विवाह केवल शरीरों का नहीं, आत्माओं का बंधन माना गया है। यह काल गृहस्थाश्रम का प्रवेश द्वार है, जहां मनुष्य अकेले नहीं, परिवार के रूप में जीना प्रारंभ करता है। यह काल केवल प्रेम या आकर्षण का नहीं, अपितु धर्म, अर्थ और काम के संतुलन का काल है। गृहस्थाश्रम को ही संसार की रीढ़ कहा गया है, क्योंकि यहीं से समाज और संस्कृति की धारा प्रवाहित होती है। इसीलिए विवाह केवल एक रस्म नहीं, वह एक तपस्या है, जिससे दो आत्माएं मिलकर धर्म, अर्थ और काम को संतुलित करती हैं, ताकि आगे का जीवन संयमित और संतुलित रहे। इस अवस्था में आत्मा केवल अपने सुख के लिए नहीं, दूसरे के सुख-दुख की भागीदार बनती है। यही वह चरण है जहाँ ‘मैं’ की जगह ‘हम’ की भावना जन्म लेती है। यही से जीवन में वास्तविक परिपक्वता का आरंभ होता है।

32 वर्ष: पारिवारिक उत्तरदायित्वों का उदय

विवाह के बाद जब बालक होते हैं, तो शिशुओं की आरंभिक देखभाल और पालन-पोषण में चार-पांच वर्ष कैसे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता। इसके बाद तब जीवन केवल स्वयं तक सीमित नहीं रह जाता। बच्‍चों की जिम्मेदारियां भी अब सिर उठाने लगती हैं। अब तक जीवन एक आकार लेता है, क्‍योंकि व्‍यक्ति अब माता-पिता की भूमिका में स्‍वयं को ढाल रहा होता है। यह वह अवस्था है जब जीवन का केंद्र बिंदु ‘मैं’ नहीं, ‘बच्चा’ बन जाता है। यहीं से शुरू होती है जीवन में त्याग और तपस्या की अवस्था, जब मनुष्य पहली बार 'स्‍व’ से ऊपर उठकर 'परिवार' के भाव में जीना सीखता है। यह काल तप का प्रतीक है, क्योंकि अब नींद, आराम, स्वार्थ सब त्यागकर एक नया जीवन सँवारने का संकल्प लिया जाता है। वेदों में कहा गया है — "पुत्रात् पितरः तृप्यन्ति" — सन्तान के माध्यम से ही पूर्वजों का त्राण होता है। इसलिए यह उत्तरदायित्व केवल सामाजिक नहीं, आध्यात्मिक भी है।

40 वर्ष: जीवन की पूर्णता का पहला बिंदु

इस उम्र तक मनुष्य एक स्थिरता को पा चुका होता है। परिवार, नौकरी या व्‍यवसाय, घर जैसी चीजें काफी हद तक कुछ व्यवस्थित हो चुकी होती हैं।  यही वह अवस्था है जब जीवन को 'पीछे मुड़कर' देखने का मौका आता है। इस तरह चालीस की अवस्था में व्यक्ति को पहली बार अपने जीवन में यह झलक मिलती है कि अब तक क्या पाया और क्या खोया। इस तरह यही वह पड़ाव होता है जहां आत्ममंथन प्रारंभ होता है। व्यक्ति पहली बार पूछता है – "मैं कौन हूँ? और क्यों हूँ?" यही प्रश्न आत्मचिंतन की ओर ले जाते हैं। यही प्रश्न व्यक्ति को धर्म, अध्यात्म और आत्मा की ओर मोड़ते हैं। यदि इस काल में व्यक्ति आत्मचिंतन न करे, तो जीवन केवल पदार्थों की दौड़ बनकर रह जाता है। यही वह समय है जब ‘बाहर की सफलता’ के साथ ‘भीतर की शांति’ की खोज शुरू होती है।

48 वर्ष: संतान की गृहस्थी और सांसारिक दायित्व

इस काल में मनुष्य अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा चुका होता है और अब उनके करियर, विवाह, व्यवसाय और भविष्य निर्माण आदि को लेकर चिंता करता है।  यह काल है दायित्व निर्वहन का। इसीलिए वैदिक ग्रंथों में में इसे 'विप्र अवस्था' कहा गया है, जब व्यक्ति समाज और परिवार दोनों के लिए मार्गदर्शक बनता है। यह अवस्था जीवन के सबसे व्यस्त और सबसे निर्णायक वर्षों में से एक है। इस अवस्‍था में त्याग, विवेक और सहिष्णुता का अभ्यास परम आवश्यक है। जीवन के इस चरण में व्यक्ति स्वयं की इच्छाओं को त्याग कर नई पीढ़ी के लिए कार्य करता है। यही वह अवस्था है जहाँ ‘संकल्प से सेवा’ की भावना प्रबल होनी चाहिए। अब व्यक्ति को समाज का भी मार्गदर्शन करना चाहिए। परिवार के दायरे से ऊपर उठ कर समाज निर्माण में योगदान देना, धर्मशाला, पाठशाला, गौशाला, तीर्थयात्रा आदि में रत होना — यही वास्तविक वानप्रस्थ की भूमिका है।

56 वर्ष: वृद्धावस्था की पहली दस्तक

इस अवस्‍था में पहुंचने पर भौतिक क्रिया-कलाप से शरीर थकने लगता है। हालां‍कि मन जागरूक रहता है। अनुभव और ज्ञान चरम पर होते हैं। यह वह काल है जब व्यक्ति को शरीर से परे अपनी आत्मा की तैयारी करनी चाहिए। वासनाएं मद्धम हो जाएंऔर वैराग्य के बीज अंकुरित होने लगें। तो व्‍यक्ति 'अहं' को पीछे छोड़कर 'वैराग्य' का अभ्यास प्रारंभ करता है। अब कर्म करने का नहीं, कर्मों के फल देखने और समझने का समय आता है। यह वह अवस्था है जहाँ मनुष्य को धीरे-धीरे संसार से मन हटाकर ‘परम तत्व’ की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गीता कहती है — "संगं त्यक्त्वा फलान्यस्य", अब त्याग का समय है, संग्रह का नहीं। “अष्टावक्र गीता” कहती है — "यदा न मम भावोऽस्ति तदा मुक्तिर्ममेव हि", जब ‘मेरा’ भाव छूटता है, तब मुक्ति संभव होती है।

64 वर्ष: कार्य से निवृत्ति, आत्मा से प्रवृत्ति

अब सांसारिक कार्यों की जिम्मेदारियों से मुक्ति मिलती है। मौजूदा संदर्भ में इसे ही ‘रिटायरमेंट’ कहा जाता है। पर यह केवल सरकारी शब्द नहीं, केवल दफ्तर से निवृत्ति नहीं, बल्कि सांसारिक मोह से एक मनोवैज्ञानिक मुक्ति है। इस तरह यह जीवन की 'विरामावस्था' है। अब समय है भीतर झाँकने का। यह काल जीवन की संध्या बेला है, जब आत्मा को आत्मचिंतन, ध्यान, साधना और सत्संग में रत हो जाना चाहिए। यह काल है जब मनुष्य को अब भीतर की यात्रा प्रारंभ करनी चाहिए। वेदांत कहता है — "अब अपने आत्मस्वरूप को जानो।" अब तक जो कुछ भी संचित किया गया — वह सब इस जीवन यात्रा का साधन था, साध्य नहीं। अब साध्य की ओर बढ़ना है, यानी "सत्यं, शिवं, सुंदरं" की ओर। यही वह समय है जब अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन, सत्संग का सेवन और प्रभु-नाम की साधना अनिवार्य हो जाती है।

72 वर्ष: विरासत का विवेकपूर्ण वितरण

यह काल है जब मनुष्य भूतकाल का प्रबंधक और भविष्य का निर्माता बनता है। यह उम्र है दृष्टा बनकर जीवन को देखने की है। यहां पहुंच कर व्‍यक्तिी को दिखता है कि उसके कर्मों की डोर अब संतानों के हाथों में है। यह वह अवस्था है जब व्यक्ति को अपने भौतिक और आध्यात्मिक उत्तराधिकार की व्यवस्था करनी होती है। बंटवारा और उत्‍तराधिकार केवल संपत्ति का नहीं, केवल आर्थिक संपदा का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का भी करना होता है। जीवन के आदर्श, संस्कार, चरित्र और मूल्य भी होते हैं जिन्हें अगली पीढ़ी को देना होता है। यह वह भावनात्मक अवस्था है जहाँ अंतर्मन कहता है — “अब जो दे सका, वही मेरा है।”

80 वर्ष: भौतिकता से विदाई की वेला

अब जीवन अपने अंतिम सोपान पर आ पहुंचता है। शरीर पूरी तरह से थक चुका होता है, पर आत्मा अब तक बहुत कुछ देख और सीख चुकी है। अब संसार के आकर्षण कम हो जाते हैं और प्रभु की याद अधिक आती है। यह वह समय है जब मनुष्य को मोक्ष की ओर बढ़ना चाहिए। यह काल है "प्रारब्ध की समाप्ति और मोक्ष की प्रतीक्षा" का। अब केवल प्रभु का नाम, ध्यान, और स्मरण ही शेष रह जाता है। “अंतकालं स्मरणं विष्णोः” — यही मोक्ष का द्वार है। श्रीमद्भगवद्गीता कहती है “अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्” । अर्थात् जो व्‍यक्ति अंत समय में भगवान का स्मरण करता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है। अतः यह काल ध्यान, जप, साधना, और प्रभु के नाम में विलीन होने का है। यही वह बेला है जब आत्मा अपने असली घर यानी ईश्वर के चरणों में लौटने की तैयारी करती है।

आठ में ही अंत है और अनंत भी

इस तरह हम देखते हैं कि आठ का पहाड़ा केवल संख्याओं का गणित नहीं, यह जीवन के पड़ावों की आध्यात्मिक व्याख्या है।  यह केवल संख्यात्मक गणना नहीं, जीवन की आध्यात्मिक योजना है। प्रत्येक आठ वर्षों का काल एक आश्रम, एक कर्तव्य, एक अवसर है। जो इसे समझ ले, वही जीवन को समझता है। जीवन आठ-आठ वर्षों के चक्र में एक गोलाई में घूमता हुआ पूर्णता को प्राप्‍त करने का प्रयोजन करता है। हर आठ वर्षों का पड़ाव एक तीर्थ है, जहां रुककर आत्मा को स्नान कर नई ऊर्जा से भर लेना चाहिए। इस आठ के पहाड़े का आध्‍यात्मिक और दार्शनिक संदेश यही है कि जीवन में हम समय से पहले न भागने की होड़ में न उलझें, बल्कि समय आने पर रुकना-ठहरना और विचार करना भी सीखें। क्‍योंकि, जीवन की हर अवस्था की अपनी महत्ता है, अपना धर्म है, और उसी में जीवन की सार्थकता छिपी है। इस बात को समझ लेने पर ही जीवन संपूर्ण होगा और तभी संसार से विदाई भी सुमधुर होगी और आठ का यह पहाड़ा, अंततः हमें अंत नहीं, बल्कि अनंत की ओर ले जाएगा।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ